योग क्या है? योग का अर्थ, Yog Kya Hai, Yog Kise Kahate Hain

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योग क्या है? योग का अर्थ, Yog Kya hai, yog

योग का अर्थ (Meaning of Yoga) : ‘योग’ एक व्यापक शब्द है। संस्कृत भाषा की ‘युज्’ धातु से ‘योग’ शब्द की उत्पत्ति हुई, जिसका अर्थ है— जोड़ना। ‘युज समाधी’ धातु से ‘धन्य’ प्रत्यय लगाकर हुई है। इसके अर्थ है–बोधना, एकत्र करना, जुटाना, संयोग करना अर्थात् समाधि अवस्था की प्राप्ति के लिए प्रक्रिया योग के दो प्रमुख अर्थ है-पहला जीव व ईश्वर या आत्मा व परमात्मा का मिलन या अद्वैतिक अनुभूति एवं 

दूसरा अर्थ है– चित्तवृत्तियों को अभ्यास व वैराग्य से एकाग्र करने की प्रक्रिया महर्षि व्यास के अनुसार योग का अर्थ समाधि है क्योंकि समाधि अवस्था में पहुँच कर चित्तवृत्तियों का पूर्णतः निरोध सम्भव है तथा यह स्थिति परमात्मा से तादात्म्य बना सकती है। भारतीय ऋषिमुनियों की अनमोल धरोहरों में से योग एक महत्वपूर्ण विद्या है। 

श्रुतियों, स्मृतियों व शास्त्रों में योग की महिमा का वर्णन है। ऋषि पाणिनी ने योग लगाते। हुए ‘युज समाधी’, ‘युजिरयोगे’, ‘युज संयमेन’ अर्थात् संयमपूर्ण साधना करते हुए स्वयं की चेतना को परम- चेतना में विलीन कर देना ही योग है।  महर्षि पतंजलि ने कहा है. ” योगश्चित्तवृत्ति निरोधः” अर्थात् चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है।

योग की परिभाषाएँ (Definitions of Yoga)

महर्षि वशिष्ठ कहते हैं, “संसार नामक सागर से पार होने की मुक्ति की युक्ति का नाम योग है।”

अमृतनादोपनिषद् (28) की परिभाषा – “भय, क्रोध, आलस्य, अत्यधिक भोजन, अधिक जागना, आदि समस्त दुर्गुणों को योगी हमेशा के लिए परित्याग कर दें।” गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-“योग, कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्म के करने में जो कुशलता है, उसी का नाम योग है।”

योग की विचारधाराएँ (Ideologies of Yoga) भारत देश में तीन मुख्य धाराएँ हैं जिनके द्वारा योग के सम्बन्ध में विचार अभिव्यक्त किये गये हैं। ये तीनों विचारधाराएँ अग्र प्रकार हैं-

1. वेदमूलक धारा–  ऐतिहासिक दृष्टि से यह विचारधारा सबसे प्राचीन है। जो लोग इस विचारधारा से सम्बद्ध हैं उनके लिए वेद अन्तिम प्रमाण है। वेद और सभी प्रधान टीकाएँ व व्याख्याएँ संस्कृत में हैं एवं वेद पर आधारित दूसरे सभी ग्रन्थ भी संस्कृत में ही हैं। इसी क्रम में रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियों व धर्मशास्त्रों की गणना होती है और ये सभी ग्रन्थ योग चर्चाओं से भरे हुए हैं। इनमें योगियों को कथाएँ एवं योगाभ्यास से सम्बन्धित उपदेश विस्तार से मिलते हैं। योग विषय पर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी हैं देवी-देवताओं के वर्णन में योगिगम्य होने व विभूति युक्त होने का उल्लेख मिलता है।

2. बौद्ध धारा- भगवान् बुद्ध के उपदेशों व आदेशों का संग्रह ग्रन्थ पालि भाषा में है परन्तु साहित्य संस्कृत में है। बुद्ध धारा के ग्रन्थों में योग व योगियों की चर्चाएँ भरी हुई हैं। न बुद्ध जीवन योग का ज्वलन्त समर्थन करता है। जिस मार्ग का बुद्ध द्वारा प्रसार किया गया है वह योग साधनाओं से प्राप्त किया गया था। उनके द्वारा अनेक बार योगाभ्यास पर उपदेश भी दिये गये।

3. जैन धारा- जैन धर्म के ग्रन्थ पालि भाषा में हैं और बाद में संस्कृत का भी विशाल साहित्य है। जैन धर्म में योग का स्थान तपश्चर्या ने लिया जिसमें जैन गृहस्थ तक लम्बे व्रत व उपवास करते हैं। इसी कारण से जैन धर्म में योग विषय पर कम चर्चा देखने को मिलती है। भारत देश की कई ऐसी प्रबल उपधाराएँ निकली हैं जिनका प्रभाव और विस्तार अन्य देशों या किसी अन्य सम्प्रदाय की मुख्य धाराओं से किसी भी रूप में कम नहीं था।

योग के प्रमुख प्रकार (Main Types of Yoga)

दत्तात्रेय योगशास्त्र व योगराज उपनिषद् में योग के चार प्रकार बताए गए हैं। योग तोपनिषद् में ये चतुर्विध योग निम्न प्रकार हैं-

(i) मन्त्रयोग– मातृकारियुक्त मन्त्र को 12 वर्ष तक विधि के अनुसार जाप करने से साधक को अप्रिया आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मुक्ति पाने के लिए योग एक महत्वपूर्ण साधन है। 

(ii) हठयोग — इस योग में विभिन्न मुद्राओं, आसनों, प्राणायाम एवं बन्धों के अभ्यास द्वारा शरीर को निर्मल बनाया जाता है और मन को एकाग्र किया जाता है।

(iii) राजयोग-  इस योग के अन्तर्गत यम-नियम आदि के अभ्यास से चित्त का निर्मल करना व ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार करना आता है। 

(iv) लययोग – यह योग दैनिक क्रियाओं को करते हुए ईश्वर का सदैव ध्यान करना है। इसलिए इसे लययोग कहते हैं।

योग की विशेषताएँ (Characteristics of Yoga)

योग शब्द एक व्यापक शब्द है, इसकी विशेषताएँ सीमित नहीं हो सकतीं। योग की कुछ प्रमुख विशेषताएँ अग्र प्रकार हैं।

1. भारतीय दर्शन में योग– भारतीय दर्शन में योग दर्शन विचारधारा से यह स्पष्ट होत है कि ब्रह्माण्ड ईश्वर द्वारा निर्मित मनुष्य व प्रकृति के योग से बना है। प्रकृति, ईश्वर, मनुष्य तीनों अनादि अनन्त हैं। इस विचारधारा के अनुसार मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य परमानन्द की अनुभूति है जिसे अष्टांग योग साधना से प्राप्त किया जा सकता है।

2. अमूल्य – भविष्य में योग एक मूल्यवान विरासत कहलायेगा क्योंकि आधुनिक जीवन के पर्यावरण में विभिन्न दुःख, पीड़ा व व्याधियाँ हैं जिनको मुक्ति योग से सम्भव है। स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने योग को वर्तमान की मूल्यवान विरासत बताया है।

3. योग-विज्ञान– ओशो कहते हैं कि “योग धर्म, आस्था एवं अन्धविश्वास से आगे है। यह एक सोधा विज्ञान व प्रायोगिक विज्ञान है। योग जीवन जीने की कला है। यह चिकित्सा पद्धति एवं पूर्ण मार्ग है। समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों नियमों, धर्मों एवं व्यवस्थाओं में योग सर्वश्रेष्ठ है।

4. योग एक सम्पूर्णता- योग जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करता है। योग में सशक्त शरीर जीवन का आधार है। इसमें शरीर साधना को धर्म-साधना का मान दिया गया है। योग में शरीर का स्वस्थ रहना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। योग साधना का मूल मन्त्र ‘साम्य स्थिति ‘साध्य’ है। योग जीवन जीने का तरीका सिखाता है और इसका अभ्यास जीवन को उत्सवमव बनाता है। योग जीवन से नीरसता का हास करता है।

योग व व्यायाम में अन्तर

योगव्यायाम
1. योग आन्तरिक शक्ति से अवगत कराता है।1. व्यायाम शारीरिक व शान्त शक्ति का सूचक है।
2. योग अज्ञान दूर करने का साधन है।2. व्यायाम शारीरिक मजबूती प्रदान करता है।
3. योग एकाग्रता, सुख-सन्तोष का अनुभव कराता है।3. व्यायाम शारीरिक क्षमता का विकास कराता है।
4. योग करने से शारीरिक लचीलापन आता है।4. व्यायाम शरीर को कड़ा व मजबूत करता है।
5. योग करने से फेफड़ों को पूर्ण मात्रा में ऑक्सीजन मिलती है।5. व्यायाम शरीर से पसीने के द्वारा विषैले पदार्थ बाहर निकालता है। 
6. योग मानसिक शक्तियों को सजगता व क्रियाशीलता बढ़ाता है।6. व्यायाम शारीरिक कार्य करने को क्षमता का विकास करता है। 
7. योग साधना आत्मा को परमात्मा से मिलाने में सहायता करती है। 7. व्यायाम से शारीरिक स्फूर्ति प्राप्त होती है।
8. योग ईश्वर का दूसरा नाम है। 8. व्यायाम ताजगी का दूसरा नाम है।
9. योग शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक तीनों के विकास में लाभदायक है।9 व्यायाम शारीरिक विकास में अधिक लाभ करता है। 
10 योग करते समय श्वास गति धीमी रहती है।10 व्यायाम में श्वास गति तीव्र हो जाती। है।

योग का इतिहास,  योग में बाधक तत्वों 

योग सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित एक आध्यात्मिक विषय है जो मन एवं शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करने का साधन है। योग के विज्ञान की उत्पत्ति हजारों साल पहले हुई थी। योग का प्रथम गुरु एवं योगी भगवान शिव को माना जाता है। कई हजार वर्ष पूर्व आदि योगी ने अपने प्रबुद्ध योगज्ञान को प्रसिद्ध सप्तऋषियों (वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक) को प्रदान किया था। 

इन्हीं ऋषियों ने इसे विश्व के भिन्न- भिन्न भागों तक पहुँचाया। भारत में ही योग ने सबसे पूर्ण अभिव्यक्ति प्राप्त की। अगस्त नामक ऋषि ने यौगिक तरीके से जीवन जीने के विषय में बताया। उपनिषद में योग के पर्याप्त प्रमाण हैं। योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। 

योग का प्रामाणिक ग्रन्थ ‘योगसूत्र’ 200 ई.पू. योग पर लिखा गया पहला सुव्यवस्थित ग्रन्थ है। वैदिक काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। इस काल में चार आश्रमों को व्यवस्था की गई। 563 से 200 ई.पू. योग के तीन अंग तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान का प्रचलन था। इसे ‘क्रियायोग’ कहा जाता है। लोक परम्पराओं, सिन्धु घाटी सभ्यता, वैदिक एवं उपनिषद् को विरासत, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं, विभिन्न दर्शनी, महाभारत एवं रामायण नामक महाकाव्यों में योग की मौजूदगी है। 

वैदिक काल में सूर्य को अधिक महत्व दिया जाता था। इसी कारण सूर्य नमस्कार’ की प्रथा का आविष्कार किया गया। पूर्व वैदिक काल (2700 ईसा पूर्व) के बाद पतंजलि काल तक योग को प्रामाणिक रूप मिल चुका था। व्यास द्वारा योगसूत्र पर बहुत महत्वपूर्ण टीका भी लिखी गई। 800 ईसवी-1700 ईसवी के बीच की अवधि को उत्कृष्ट अवधि के बाद को अवधि के रूप में माना जाता है जिसमें महान आचार्यत्रयों आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य के उपदेश इस अवधि के दौरान प्रमुख थे। 

हठयोग परम्परा के नाथ योगी जैसे मत्स्येन्द्र नाथ, गोरखनाथ, गौरांगी नाथ, सवात्माराम सूरी, पेरांडा, श्रीनिवास भट्ट ऐसी कुछ महान हस्तियाँ हैं जिन्होंने इस अवधि के दौरान हठ योग की परम्परा को लोकप्रिय बनाया। 1700-1900 ईसवी में महान् योगाचार्यो रमन महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानन्द, विवेकानन्द आदि ने राजयोग के विकास में योगदान दिया। इस काल को आधुनिक काल के रूप में माना गया। इस अवधि में भक्ति योग, हठयोग एवं वेदान्त अपने सर्वोच्च स्तर पर था। जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। 

वर्तमान में स्वामी रामदेव का पतंजलि योगपीठ, स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का बिहार स्कूल ऑफ योगा, श्री श्री रविशंकर का आर्ट ऑफ लिविंग का योग, परमार्थ निकेतन ऋषिकेश, मुरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान, स्वामी विवेकानन्द योग अनुसंधान संस्थान तथा रमामणि आयंकर स्मृति योग संस्थान पुणे देश-विदेश में योग के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। 

योग की उपयोगिता के प्रचार-प्रसार हेतु भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण में पहली बार योग दिवस 21 जून का प्रस्ताव रखा तत्पश्चात् पहली बार योग दिवस 21 जून, 2015 को मनाया गया। इस दिन को योग दिवस, विश्व योग दिवस तथा अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के नाम से भी जाना जाता है।

योग में बाधक तत्व— योग साधना मन को एकाग्रता पर निर्भर करती है और एकाग्रता को अनेक तत्व प्रभावित करते हैं जो योग के बाधक तत्व बन जाते हैं। ये तत्व निम्नलिखित

  • (1) आलस्य-  काम को अधिकता से मन भारी महसूस करता है और शरीर में आलस्य आने लगता है और यही आलस्य योग में बाधक बनता है।
  • (2) अधिक भोजन-  अधिक भोजन आलस्य एवं विभिन्न प्रकार के रोगों को न्यौता देता है जो कि योग के मार्ग को अवरोध करते हैं। 
  • (3) चंचलता-  योग एकाग्रता चाहता है और जब मन चंचल स्वभाव का होगा तो वह एकाग्रता को भंग करेगा तथा योग में बाधक बनेगा।
  • (4) अनुशासनहीन जीवन-  योग साधना वही व्यक्ति कर सकता है जो अनुशासन युक्त जीवन जीता हो जिसके नित्यक्रम में एक नियमित अभ्यास हो। परन्तु अनुशासनहीनता

योग साधना का मार्ग अवरोध करती है। योग साधना में नित्य अभ्यास, धैर्य, वित्त की स्थिरता एवं एकाग्रता की आवश्यकता होती है और इन सभी को कमी या अधिकता एक असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न कर देती है। तथा योग में बाधा उत्पन्न करती है।

योग के नियम, योग के आवश्यक बिन्दु, योग के अंग

योग प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। योग आत्मानुशासन, आत्मज्ञान व आत्मदर्शन का पवित्र पथ है जिस पर चलने से आन्तरिक व बाह्य सौन्दर्य खिल जाते हैं। योग के साधक तत्व निम्न प्रकार है-

1. आध्यात्मिक तत्व– आध्यात्मिक स्तर पर योग साधना के लिए कुछ प्रमुख बातों का ध्यान करना होता है। इन बातों को निम्न रूप से स्पष्ट कर सकते हैं–

  • (i) ज्ञान सबसे प्रमुख तत्व है जिससे ईश्वर प्राप्ति के मार्ग प्रशस्त होते हैं। ज्ञान धार्मिक शास्त्रों में वर्णित प्रमाणिक ज्ञान के द्वारा प्राप्त किया जाता है। इससे मनुष्य को वास्तविकता का परिचय हो जाता है, सही-गलत, पाप-पुण्य, आदि के बारे में पता चलता है।
  • (ii) धैर्य का अध्यात्म में विशेष स्थान है। वैसे धैर्य किसी भी परिस्थिति के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि इसके माध्यम से सफलता सम्भव है। धैर्य मन व बुद्धि दोनों को प्रभावित करता है। धैर्य से विपरीत या मुश्किल परिस्थितियों को भी पार किया जा सकता. है। इससे एकाग्रचित्त होकर कार्य करने में आसानी रहती है।
  • (iii) दृढ़ निश्चय अध्यात्म का एक अभिन्न अंग है। एक दृढ़ निश्चय वाला व्यक्ति निश्चित सफलता प्राप्त करता है। वह आदर-सम्मान पाता है। ऐसे व्यक्ति अदम्य शक्ति व विचारों से सशक्त होते हैं।
  • (iv) आध्यात्मिक पक्ष में साहस अपना अलग स्थान रखता है। मानव जीवन कठिन व साम्य स्थितियों से पूर्ण है। कदम-कदम पर परेशानियाँ आती है तो इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। साहस से व्यक्ति किसी भी समस्या से आगे जाकर कार्य सम्पन्न कर सकता है। साहस बिना योग साधना की सिद्धि नहीं हो सकती और इससे जीवन पथ पर विजय प्राप्त हो जाती है।
  • (v) उत्साह से कोई भी कार्य करने में उसमें सफलता प्राप्त होती है क्योंकि उमंग में व्यक्ति मुश्किल कार्य को भी आसानी से पूर्ण कर लेता है। अध्यात्म में उत्साह एक आवश्यक अंग है क्योंकि इसके अभाव में दुर्गम मार्ग पर चलना कठिन हो जायेगा। साधक के जीवन में कठिन से कठिन परिस्थितियों में कार्य करने के लिए उत्साह की आवश्यकता पड़ती है जो कठिन परिस्थितियों को सरल बना देता है।

2. राजयोगी तत्व-  इस तत्व में योग साधना किसी भी व्यक्ति के द्वारा भी कुछ नियमों का पालन करते हुए सरलता से की जा सकती है। ये तत्व अग्रलिखित हैं-

(i) यम– इसमें व्यावहारिक जीवन को सात्विक एवं दिव्य बनाया जाता है। इसके प्रकार हैं-

  1. अहिंसा
  2. अस्तेय
  3. सत्य 
  4. ब्रह्मचर्य
  5. अपरिगृह

(ii) नियम– इसमें शरीर इन्द्रिय व अन्तःकरण को सात्विक व दिव्य बनाया जाता है। नियम के प्रकार हैं-

  • शौच
  • तप
  • सन्तोष
  • ईश्वर 
  • प्राणिधान
  • स्वाध्याय

(iii) आसन — इसमें कुछ घण्टे बैठने के अभ्यास के साथ शारीरिक व्यायाम द्वारा शरीर के विकारों को दूर कर कार्य क्षमता में वृद्धि की जाती है। 

(iv) प्रत्याहार— इसमें किसी भी जीव द्वारा अवगुणों, बुरे विचारों, बुरे संस्कारों को बाहर निकाला जाता है। प्रत्याहार कर्म-इन्द्रियों को अपने विषय में लिप्त होने से रोकना है।

(v) ध्यान – किसी भी विषय या लक्ष्य पर विचार करना (कुछ समय तक), ध्यान कहलाता है। 

(vi) प्राणायाम – इस क्रिया से शरीर एवं मन को शक्तिशाली बनाने के लिए आसन किये जाते हैं।

(vii) धारणा –  यह विश्वास है जिससे मनोवांछित स्थिति की प्राप्ति सम्भव है। 

(viii) समाधि— यह गहरी निद्रा स्थिति है जिसमें सभी विकारों को त्याग दिया जाता है।

3. पंच महाभूत-  योग साधना के लिए पंच महाभूत निम्न प्रकार हैं-

(i) पृथ्वी –  मनुष्य पृथ्वी से निकटता रखकर अपने जीवन में आरोग्य प्राप्त कर सकता है। पृथ्यों के गुण चमत्कारी हैं। इस पर बैठना, लेटना, विश्राम करना, सोना, आदि क्रियाएँ करके शरीर को ऊर्जावान व फुर्तीला बनाया जा सकता है। जमीन से जुड़ने से सुख-शान्ति व आराम मिलता है। 

(ii) आकाश –  आकाश का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। इस तत्व को ग्रहण करने के लिए खुले आकाश में सोना, रहना, आदि क्रियाएँ उत्तम रहती हैं। (iii) वायु – वायु जीवन-क्रिया के लिए अत्यन्त शक्तिशाली तत्व है। साँस लेने के लिए वायु को आवश्यकता होती है जिससे फेफड़े सशक होते हैं। शुद्ध, ताजा व स्वच्छ वायु के साम अधिकाधिक रहने से मनुष्य बीमारियों से दूर रहता है। सुबह के समय बगीचों, बागों, पेड़-पौधों के आस-पास रहलना चाहिए जिससे रक्त संचार अच्छा होता है।

(iv) जल – यह सभी जानते हैं कि जल ही जीवन है। यह तत्व जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। शरीर की समस्त क्रियाओं जैसे— भोजन, श्वास, रक्त संचालन आदि के लिए जल बहुत जरूरी तत्व है। इसके प्रयोग से जीवन सुखमय बनता है। स्वच्छ, निर्मल व शीतल ‘जल को ‘ईश्वरीय जल’ भी कहते हैं।

(v) अग्नि – अग्नि तत्व जीवन में अपना विशेष स्थान रखता है। इसकी कमी से अनेक विकार जैसे— शुष्क त्वचा, जोड़ों का दर्द, नजर- कमजोरी, रक्त संचार में अनियमितता आदि हो जाते हैं। अग्नि तत्व सूर्य की किरणों से प्रदर्शित होता है और जीवन का अभिन्न अंग है।

योग के आवश्यक बिन्दु (नियम) (Necessary Points of Yoga)

(1) योग क्रियाएँ स्वच्छ एवं साफ तन-मन से की जानी चाहिए। शौच व स्नान क्रिया के बाद किया गया योग अत्यन्त फलदायी होता है।

(2) योग स्वच्छ व शान्त वातावरण में समतल भूमि पर आसन बिछाकर करना चाहिए।

(3) योग आसन करते समय मौसम के अनुकूल वस्त्र धारण करने चाहिए।

(4) योग आसन शान्त वातावरण में एकाग्रता से करने चाहिए जिससे शारीरिक व मानसिक लाभ अधिक हो।

(5) योग आसनों में बिना बल का प्रयोग किये श्वास, शरीर व मन को शान्त रखना चाहिए। 

(6) शारीरिक लचीलापन उत्पन्न करने के लिए योग आसनों के अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए।

(7) योग आसन क्रियाओं को विधिपूर्वक करना चाहिए।

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